मनोज दुबे। उत्तर प्रदेश की राजनीति में संगठनात्मक बदलाव कभी साधारण नहीं होते। विधानसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी द्वारा केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने की चर्चा इसी राजनीतिक गणित का हिस्सा है। यह फैसला केवल नेतृत्व परिवर्तन नहीं, बल्कि जातीय संतुलन, क्षेत्रीय समीकरण और विपक्ष की रणनीति को चुनौती देने की एक सुविचारित चाल के रूप में देखा जा रहा है।
PDA राजनीति के विरुद्ध भाजपा की जवाबी रणनीति
समाजवादी पार्टी लंबे समय से PDA (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) फार्मूले को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करती रही है। ऐसे में भाजपा का पंकज चौधरी को आगे करना सीधे तौर पर पिछड़े वर्गों, खासकर कुर्मी समाज, को साधने का प्रयास है।
उत्तर प्रदेश में कुर्मी मतदाता न सिर्फ संख्या में प्रभावी हैं, बल्कि कई क्षेत्रों में चुनावी नतीजों को निर्णायक रूप से प्रभावित करते हैं। एनडीए की सहयोगी पार्टी अपना दल पहले से ही इस वर्ग में सक्रिय है, लेकिन भाजपा अब खुद इस सामाजिक आधार को और मजबूत करना चाहती है।
पूर्वांचल का उभार और संगठनात्मक संदेश
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पहले ही गोरखपुर के जरिए पूर्वांचल का प्रतिनिधित्व करते हैं। पंकज चौधरी के प्रदेश अध्यक्ष बनने का स्पष्ट संकेत है कि भाजपा आने वाले चुनाव में पूर्वांचल को सत्ता और संगठन दोनों में केंद्र में रखना चाहती है। महाराजगंज और आसपास के जिलों में पंकज चौधरी की मजबूत पकड़ पार्टी के लिए जमीनी ताकत का काम कर सकती है।
संगठन बनाम सत्ता: संतुलन की तलाश
भाजपा के सामने एक बड़ी चुनौती संगठन और सरकार के बीच संतुलन बनाए रखने की रही है। पंकज चौधरी की छवि एक ऐसे नेता की है जो सत्ता में रहते हुए भी संगठन से कटे नहीं। पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच उनकी स्वीकार्यता, विवादों से दूरी और जिम्मेदारियों के सफल निर्वहन ने उन्हें 'सेफ चॉइस' बना दिया है।
संघ, नेतृत्व और भरोसे का त्रिकोण
राजनीतिक गलियारों में यह भी चर्चा है कि पंकज चौधरी की आरएसएस से नजदीकी और पार्टी कैडर के बीच विश्वसनीयता उन्हें शीर्ष नेतृत्व के भरोसेमंद नेताओं में शामिल करती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बिना प्रोटोकॉल उनके घर जाना केवल व्यक्तिगत सम्मान नहीं था, बल्कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और कुर्मी समाज के लिए एक राजनीतिक संकेत भी माना गया।
विपक्ष के नैरेटिव को कमजोर करने की कोशिश
भाजपा पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता रहा है कि वह अगड़ी जातियों की पार्टी है। पंकज चौधरी जैसे पिछड़े वर्ग के अनुभवी नेता को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर पार्टी न सिर्फ इस धारणा को चुनौती देना चाहती है, बल्कि विपक्ष के सामाजिक न्याय के दावे को भी कमजोर करना चाहती है।
क्या यह चुनावी तुरुप का पत्ता साबित होगा?
पंकज चौधरी का राजनीतिक सफर पार्षद से केंद्रीय मंत्री तक का रहा है। हार के दौर में भी पार्टी ने उनका साथ नहीं छोड़ा और यही निरंतरता आज उनके पक्ष में जाती है। हालांकि सवाल यह है कि क्या संगठन की यह रणनीति जमीनी स्तर पर वोटों में तब्दील हो पाएगी? एक बात तय है कि पंकज चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाना भाजपा के लिए केवल नेतृत्व परिवर्तन नहीं, बल्कि 2027 की लड़ाई से पहले सामाजिक और राजनीतिक मोर्चेबंदी की शुरुआत है।
केशव प्रसाद मौर्य भी इसी रणनीति के तहत साबित हुए थे सफल
विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा ने उत्तर प्रदेश की संगठनात्मक कमान केशव प्रसाद मौर्य को सौंपी थी। उन्होंने लक्ष्मीकांत वाजपेयी का स्थान लिया था, जिनके नेतृत्व में पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से रिकॉर्ड 71 सीटें जीती थीं।
केशव मौर्य के नेतृत्व में भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत दर्ज करते हुए 325 सीटों के साथ सरकार बनाई और मौर्य को उपमुख्यमंत्री बनाया गया। उत्तर प्रदेश की सियासत में मौर्य वोट बैंक की ताकत काअंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि राज्य के करीब 100 सीटों पर इसका सीधा प्रभाव देखा जाता है।
उत्तर प्रदेश में यादव और कुर्मियों के बाद ओबीसी में तीसरा सबसे बड़ा जाति समूह मौर्य समाज का है। इसे शाक्य, सैनी, कुशवाहा, कोइरी, काछी के नाम से भी जाना जाता है। भाजपा को 2014 के लोकसभा, 2017 के विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव में इस वोट बैंक से बहुत फायदा मिला।
ब्राह्मण समुदाय का असंतोष और महेंद्र नाथ पांडेय को कमान
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद प्रदेश की कुछ अगड़ी जातियों, विशेषकर ब्राह्मण समुदाय, में सरकार और पार्टी के प्रति असंतोष की जो स्थिति बन रही थी। उसे साधने के लिए महेंद्र नाथ पांडेय को संगठन की कमान सौंपी गई थी।
कहा जाता है कि ब्राह्मण मतदाता योगी सरकार में स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहा था। गोरखपुर में बसपा विधायक विनय शंकर तिवारी के आवास पर छापेमारी और रायबरेली में ब्राह्मण समुदाय के पांच लोगों की जिंदा जलाकर हत्या जैसी घटनाओं ने इस असंतोष को और गहरा कर दिया था। रायबरेली की घटना को लेकर तो सरकार के भीतर ही कई मंत्री आमने-सामने आ गए थे।
जाट वोट और किसानों को साधने के लिए भूपेंद्र सिंह चौधरी को कमान
इसी क्रम में भाजपा ने उत्तर प्रदेश के पंचायती राज मंत्री रहे भूपेंद्र सिंह चौधरी को राज्य इकाई का नया अध्यक्ष नियुक्त किया था। उन्होंने स्वतंत्र देव सिंह का स्थान लिया था। 2024 के लोकसभा चुनावों को देखते हुए यह पद बेहद अहम माना जा रहा था, जिसके लिए उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और राज्यसभा सदस्य बी.एल. वर्मा जैसे दिग्गजों के नाम भी चर्चा में थे। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि पश्चिमी यूपी में किसानों और जाट समाज की नाराजगी को दूर करने के लिए भाजपा ने भूपेंद्र सिंह चौधरी पर दांव लगाया था।
भूपेंद्र चौधरी ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत छात्र नेता के रूप में विश्व हिंदू परिषद से की थी। वे 1991 में भाजपा में शामिल हुए। 2006 में पश्चिमी यूपी के जोनल सचिव और 2012 में जोनल अध्यक्ष बनाए गए। 2016 में उन्हें विधान परिषद सदस्य मनोनीत किया गया था।
भाजपा को उम्मीद थी कि भूपेंद्र चौधरी 2024 के आम चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा की स्थिति को और मजबूत करेंगे। प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 27 पश्चिमी यूपी में आती हैं। रामपुर लोकसभा उपचुनाव में भाजपा की जीत में चौधरी की अहम भूमिका मानी गई। समाजवादी पार्टी के गढ़ माने जाने वाले रामपुर में जीत दर्ज कर भाजपा ने यह संकेत दिया है कि वह पश्चिमी यूपी की उन सीटों पर भी कब्जा कर सकती है, जो 2019 में उसके हाथ से निकल गई थीं।